Vipin Kumar jha ( Story, Shayari & Poems ) 7532871208

अक्षरों का कारीगर हूँ, शब्दों को जोड़-जोड़ कर वाक्य बनाता हूँ !

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Sunday, March 1, 2020

अधूरी-दास्तान (3) :- बनारस वाली लड़की



साला बनारस आए और यहाँ का पान ना चबाये तो खाक बनारस आये। बनारस नगरी की कहानी बचपन में बड़े शौक से सुनते थे। और सुन कर मन करता था उस रंगीन दुनिया में एक बार जरूर भटकु ! वो दिन भी पूरा हुआ, यार कुछ बोलो पर साला बनारस घाट की बात ही निराली हैं , मन्त्रोच्चारण और यहाँ की हवा से पूरा शरीर भक्तिमय में  झूम उठता है ! यहाँ का लोकल बाजार के बारे मे ज्यादा सुना था तो रिक्शा पकड़ कर चल दिये पॉकेट ढीला करने। विश्वनाथ गली, लहुराबीर, दशाश्वमेध गली और ठठेरी बाज़ार। यहाँ गोडौलिया, लहुराबीर और चौक, बनारसी सिल्क साड़ियों के लिए जाने जाते हैं, तो ठठेरी बाज़ार पेंटिंग्स और अन्य कला और आभूषणों के कार्यों के लिए।

यहाँ की गलियाँ मानो चांदनी चौक की गलियाँ, अगर एक हाथी आ जाये तो गली की वाट लग जायेगी! खैर हम भी रिक्शेवाले को भाड़ा निपटा कर पद-यात्रा करने लगे उन गलियों में । अभी एक दुकान पर चढ़ा ही था कि पीछे से किसी ने मेरे पीढ़ पर हाथ रख कर बोला और भाई साहब कब आना हुआ? बतलाए भी नही ? खैर वो सब छोड़िये चलिए चाय पी कर बाते करते है, मैं सोच ही रहा था यार कौन है ये तभी मेरा दिमाग घुमा साला ये हमको फिल्मी स्टाइल मे चुना लगाने वाला है। फिर क्या था हम भी बिहारी स्टाइल मे मज़े लेने लगे और यहाँ तक चाय का पैसा भी उन-भाई साहब को देना पड़ा । उनसे पीछा छुड़ा कर, एक ढाबा देख कर उसमें खाना खाने चले गए । यार भुख तेज़ लगा था, तो भोजन तो पहले करता । खाना भी भूख के अनुसार ही  बना था ,फिर क्या था टूट पड़े और खाने पर पीएचडी कर डाला !

अब शरीर काफी थक चुका था और अभी दो दिन बनारस की गलियों में भटकना था तो जेब के अनुसार एक होटल में एक कमरा ले लिए। आसमान भी अब चाँदनी के सौंदर्य में तब्दील होने लगी था। तभी एक पायल की झंकार मेरे कानों में  पड़ी। मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो एक बनारसी साड़ी पहने लगभग बीस साल की लड़की होटल मैनेजर से रिक्वेस्ट कर रही थी रात हो रही है, आस-पास में कोई होटल भी नही हैं। तो प्लीज कुछ इंतज़ाम कीजिये ! तभी मैनेजर ने मुझे बुला कर बोला भाई क्या आप अपने कमरे मे इनको अरजेस्ट कर सकते है। मैंने भी हिचकिचाते हुऐ हाँ भर दिया !

लड़की ने अपना बैग उठाया और होटल स्टाफ ने हमें हमारे कमरे तक छोड़ दिया। कमरा भी मानो साला मुम्बई के चॉल की तरह। गलती तो हमारी थी पर नगद-नारायण भी उतना ही दिए थे। हमलोग फ्रेश हो कर अपने फोन मे लग गए पर एक-दूसरे से बोलने में  हिचकिचा रहे थे। मैंने ही हिम्मत बढ़ाई और कुछ-कुछ उससे पूछने लगा, बातें होने लगी। फिर हम दोनों ने खाना-खाने बाहर का प्लान बनाया और एक ढाबे पर खाने के लिए पहुँच गये। उसके बातों से पता लगा उसके घर में सब वैष्णव हैं, सिर्फ वही कभी-कभी नॉनवेज खाती है। हम दोनों होटल में खाने का ऑडर दिए। दोनों अब ज्यादा बातें करने लगे थे, बातों-बातों मे पता चला वो घर से भाग कर आई है।

खाना हमारे टेबल पर लग चुका था। और ढाबे  वाला मस्त तेज आवाज़ में गाना बजा रहा था,"ये हैं शाम बनारस की" मुझे उसके चेहरे के भाव से लग रहा था, शायद उसके घर वाले उसको पूरे शहर मे ढूँढ़ रहे होंगे । पर वो खाने के सामने सब-कुछ भूल कर मस्त चिकन का लेग पीस उठा कर तोड़ने लगी। मैंने मन ही मन सोचा अगर इसके परिवार वाले अभी मुझे इसके साथ देखेंगे तो उसी लेग-पीस की तरह तोड़ेंगे। अब मैं अपने-आप को कोसने लगा। और सोच रहा था साला यही बनारस हैं । खाना कब खत्म हुआ और हम कब होटल पहुँचे पता नही पर इतना जरूर पता था वो थी बड़ी मासूम ।अब आपलोग जो सोच रहे होंगे जो रात की बाते तो बिल्कुल गलत सोच रहे है, क्योंकि ये सिर्फ अधूरी-दास्तान है !
#आँखे_बनारस _की
                                                                                              Vipin Kumar Jha

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